कभी कोई एक गांव था मेरा
जहां सूर्योदय के पहले ही
मां जाग जाती थी
खाना बनाने
और बाबूजी
गाय भैंसो को चारा देने
और तड़के ही
निकल जाते थे सब लोग
मजदूरी करने
सत्तू, चना, चबेना की पोटली लेके
और हम बच्चे करते थे देखभाल
अपने छोटे भाई बहनों की
घर और आंगन की
भेड़, बकरी, सूअर, मुर्गे, गाय, भैंसो की
खेलते भी थे इनके साथ
और तैयार करते थे अपने आप को
खेतों में काम करने के लिए
कैसे भी कमाने के लिए
यही होता था हमारा बचपन
पर बहुत खुश रहते थे इसी में
दो गज ही सही
एक आशियाना होता था
जिसे अपना कह सकते थे
कभी आई बाढ़
कभी पड़ा सुखा
कभी घर में कोई
कमाने वाला मर गया
कभी घर में बहन बेटी
की शादी होने वाली थी
मूल कर्ज की रकम
वैसे ही रही
और सूद सदियों से
चुकाते चले गए
ऐसे ही किसी कारण से
मैं भी निकला घर से
और निकले मेरे जैसे
कुछ और भी
कुछ गए चिमनी भट्टी में
कुछ गए सूरत की फैक्ट्री में
कुछ गए खदानों के अंदर
कुछ बन गए माली, बैरा, ड्राइवर
कुछ अभी ढोते हैं मैला
बिना किसी उपकरण के
कुछ गए लद्दाख रोड बनाने
तो कुछ गए चेन्नई फुचका खिलाने
कुछ असम के चाय बागानों में
कुछ राजस्थान में पत्थर तोड़ने
और कुछ गए
विदेश भी
वैध अवैध जो भी था तरीका
कमाने के आगे कहां कुछ है दिखता
कुछ मर गए बेनामी मौत
कुछ जीए नाम पहचान बदल के
सदियों से तो ही
इंसान ने इंसान को गुलाम बना के
उनका खून और पसीना चूसा
कभी बिहार के किसान बन गए
जहाजी या गिरमिटिया मजदूर
हजारों कोस अपने देश से दूर
मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम और सुदूर
कभी बंगलौर के फौजियों ने
अपने और अपने घोड़ों
की सेवा के लिए
तमिलनाडु से उठा लाए
कुछ नौकरों को
जैसे ये इंसान न हो कर
हो कोई सामान का गट्ठर
पर क्या करें
इतना आसान होता नही
रोटी कपड़ा और एक छत पाना
आत्म सम्मान और इज्जत
तो जैसे हो एक फसाना
खैर सुनिए आगे की कहानी
डाइनिंग टेबल या ड्राइंग रूम में
आराम फरमाते हुए
चाय पे चर्चा करते हुए
मैं जा पहुंचा सूरत
घर से यही कोई
1500-2000 मिल दूर
पहली बार स्टेशन देखा
और ट्रेन में बैठे
वैसे उसे बैठना नही कहते
शरीर अपने आप कहीं
एडजस्ट हो जाता है भीड़ में
संडास, पसीने और दुख
की सम्मिलित विचित्र गंध
ऐसी भी स्तिथि में
ये बात चीत करते हुए की
अपना भारत महान है
और विश्व गुरु बन चुका है
और कुछ कहा सुनी में
सफर कट ही जाता है
चले आए सूरत
मिल गया मिल में काम
बन गया हजारों चेहरों में
एक चेहरा
गौर से देखो तो
सभी ऐसे प्रवासी मजदूरों के
चेहरे एक जैसे ही दिखते हैं
दुख, मजबूरी, विरह
इनके चेहरे के फर्क को
मिटा देते हैं
और काम तो
इनको मशीन ही बना देता है
हजारों मशीन
एक साथ शुरू होते हैं
एक साथ बंद होते हैं
एक साथ इनकी
ऑयलिंग और रिपेयरिंग होती है
और कुछ समय बाद
ये भी खुद को भी मशीन
ही समझने लगते हैं
मशीन की रिपेयरिंग
से ही संतुष्ट हो जाते हैं
अपने दुख अपने कष्ट को
हो के भी नहीं दिखते
एक कब्र के जितनी
सोने की जगह
किचन गुसलखाना
में एक इंच का फर्क नही
बीमारी हो तो अस्पताल नही
दवाई की दुकान है न
गलती से डॉक्टर के पास गए
तो खूब डांट मिली
रहने का तरीका नही पता
तो बीमारी तो होगी ही
हाथ पैर कट गए
तो भी उनकी ही गलती
इतनी ट्रेनिंग दी
पर उनका मन काम में
लगता ही नहीं
दस बीस हजार मिल गए न
इतने से ज्यादा कीमत
थोड़े ही हैं
हाथ पैरों की
सच ही तो है
हमारी और हमारी जिंदगी
की कोई कीमत नहीं
हमारा कोई अधिकार नहीं
अपना कहने को दो गज जमीन नहीं
मानसिक सुख तो दूर की बात
शारीरिक सुख तो छी छी
हां कुछ वरदान मिले हैं हमे
कुपोषण और यक्ष्मा का
खसरा, हैजा और कोढ़ का
कच्ची उम्र में मरने का
कच्चे पक्के मुआवजे का
कर्ज और सुद के अंधे कुएं का
बाढ़ में सब कुछ खो देने का
सूखे के कारण खुदकुशी का
घर और घरवालों से दूर रहने का
अपनी मिट्टी को भूल जाने का
अशिक्षित और अपेक्षित रहने का
इंसानों के ही गुलाम होने का
इतने पर भी हमे गुस्सा नही
क्यों की बुजुर्गों ने यही सिखाया
पिछले जन्म के दुष्कर्मों का
का फल इस जन्म में हमने निभाया
दुआं है की तुम अच्छे भले रहो
इन वरदानों से दूर रहो
तुम्हारे सारे कष्ट हमे दे दो
हमे सदियों से आदत है इसकी
हम झेलते रहे हैं
हम झेल रहे हैं
और हम झेल लेंगे!!
Illustrations by Gayatri Sharma.