ये "अलग" होना,
कितना अलग है,
अलग होने की,
परिभाषा किसने बनाई है?
क्या हे "अलग"
किसी तरह का व्यक्ति है,
या अभिव्यक्ति है,
कोई गूढ़ भावना है,
या समस्याओं की संभावना है,
कोई कुंठित मानसिकता है,
या कुछ ना समझ पाने की,
विवशता है।
मुझे तो बिल्कुल,
समझ नहीं आती,
ये अलग होने की परिभाषा,
पर दुनिया के रंग ढंग से,
कुछ कुछ समझ आता है,
की इस दुनिया के लिए,
अलग होना एक अभिशाप है,
और जहां अभिशाप है,
वहां,
सजा है, क्रूरता है, कायरता है,
विद्वेष है, बेअदबी है, बेरहमी है,
नासमझी है, ढोंग है, दिखावा है,
अहंकार है, कमजोरी है, तरस है,
अलगाव है, छुआ छूत है, क्रोध है,
और ये हर तरह से असंतुलन है।
इस दुनियादारी के हिसाब से,
मै भी बहुत अलग हूं,
दंश और दर्द झेला है,
मैने इस अलग होने का,
सबसे प्यार करने का,
मै ऐसा कैसे हूं,कोई ऐसा हो नहीं सकता,
इस अविश्वास का,
शायद इसलिए मैं,
थोड़ा दर्द समझ सकता हूं,
उनका जो अलग है,
मै भी तो,
उन्हीं के कुनबे का,
एक हिस्सा हूं।
जब लोग कहते हैं,
अरे देखो वो बेचारा,
देख, सुन और बोल नहीं सकता,
मै कहता हूं,
अरे वो इतने रंग देख सकता है,
जितना हम सोच नहीं सकते,
अरे वो इतना धुन सुन सकते है,
जितना हम रच नहीं सकते,
वो इतने सुर में गा सकते हैं,
की तानसेन और बैजू बावरा भी शर्मा जाएं।
जब लोग कहते हैं,
और देखते हैं,
हिकारत भरी नजरों से,
अरे देखो वो,
छक्का, हिजड़ा, लौंडा,
फिर तंग करने आ गए,
भीख मांगने आ गए,
मै कहता हूं,
जिस धरती पर,
होती है शिव शक्ति की आराधना,
उनके लिंग और योनि की अर्चना,
उसी पूज्यनीय,
लिंग और योनि के आधार पर,
तुम कैसे करते हो,
इनकी भर्त्सना,
अरे इनसे एक बार,
गले मिल के तो देखो,
शायद जन्मों जन्मों की,
प्यार की भूख मिट जाए।
और हद होती है,
इस अलगपन की,
जब सृष्टि की रचना करने वाली,
वाली स्त्री भी अलग हो गई,
स्त्री के लिए अलग नियम,
एक अदृश्य "स्त्री संविधान"
जिसे बालक से लेके प्रौढ़ पुरुष तक,
सभी को ये संविधान रटा होता है,
और सदियों से इसे जीते आ रहे हैं,
कम बोलो, ऐसे पहनो, ऐसे चलो,
इससे बात करो, उससे नहीं,
तुम्हारे लिए ये अच्छा है, वो नहीं,
पुत्र, पिता, भाई के लिए,
होने वाले पति के लिए,
हो चुके पति के लिए,
करेगी व्रत एक स्त्री,
लेकिन जैसे ही मासिक हुआ,
अस्पृश्य हो गई ये स्त्री,
मृत्यु तो अटल सत्य है,
पर पति के मृत्यु की सजा,
भुगतेगी ये स्त्री,
गर्भधारण तो एक जैविक प्रक्रिया है,
कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं की,
शादी के पहले और बाद के,
अलग होते हैं ये शुक्राणु और अंडाणु,
पर अगर बिना शादी की मां बन जाए,
तो कुलटा हो जाएगी ये स्त्री,
मंदिर में शक्ति है वो स्त्री,
और घर में गुलाम है वो स्त्री,
अरे स्त्री को पूजने वालों,
पहले उनके हक दो उनको,
प्यार और सम्मान दो उनको।
और भी कुछ और कोई,
इस दुनिया के नियमों के हिसाब से,
हो सकते हैं अलग,
जैसे जंगलों में रहने वाले,
हो गए जाहिल,
पुरुष होके स्त्री की तरह,
सोचने और रहने वाले,
हो गए मौगा,
और स्त्री होके पुरुषों,
की तरह सोचने और रहने वाले,
हो गए मर्दाना,
गोरों के बीच रहने वाले,
काले हो गए हब्शी,
गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल,
और हाइपरसेक्सुअल,
हो गए अप्राकृतिक और बीमार,
और भी ना जाने कितने तरह के
"अलग"!
कभी सोचो तो,
सात रंग गर एक ही होते,
सात सुर गर एक ही होते,
एक से होते पांचों उंगलियां,
एक ही तरह की ही होती,
पंछी और मछलियां,
कहां से आता फिर,
इंद्रधनुष,
हाथ की कला,
सुर और गीत,
साज और संगीत!
प्रकृति को देखो तो ज़रा,
इनसे कुछ सीखो तो ज़रा,
चांद, तारे, ग्रह नक्षत्र,
पंच भूत और पंच तत्व,
चल अचल जीव सारे,
सदियों से है संभाले,
प्रकृति की दूरदर्शिता से ही,
अरबों सालों से ये सृष्टि टिकी,
आओ हम भी बने दूरदर्शी,
स्वीकार करें हर "अलग" को,
बन के दिखाए "समावेशी"🌹
Image by Gayatri Sharma.