जब भी सोचता हूं,
दर्द के बारे में,
तो मां की याद आती है,
उसका चेहरा सामने आता है,
यूं तो इस पितृसत्तात्मक समाज में,
स्त्रि होना ही अपने आप में,
न जाने कितने दर्दों के,
के बराबर का दर्द है,
और उसके बाद,
प्रसव का दर्द,
कैंसर का दर्द,
कैंसर के इलाज का दर्द,
दर्द को ना समझा पाने का दर्द,
दर्द के इलाज न होने का दर्द,
हर ऊटपटांग सलाह का दर्द,
किसी की ये दार्शनिकता का दर्द,
की दर्द तो जीवन की आवश्यकता है...
मैने सोचा,
क्या होता?
अगर इतना दर्द,
मुझे सहना होता,
कहते हैं प्रसव का दर्द,
सबसे असहनीय दर्द होता है,
उसने उसे छह बार झेला,
कैंसर का नाम सुनते ही,
कितना मानसिक तनाव होता होगा,
वो रेडियो और कीमोथेरेपी के सेशन,
वो बालों का गुच्छों में गिरना,
हर वक्त सर घूमते रहना,
कुछ खा नहीं पाना,
कुछ करने का मन नहीं करना,
सैकड़ों दवाइयां हर तरफ से,
नस में, मांस में,
हर पल चुभन का अहसास,
रेडियोथेरेपी के कारण,
अंतड़ियों का आपस में चिपक जाना,
हर सप्ताह/महीने में,
असहनीय पेट दर्द होना,
बेतहाशा उल्टियां करना,
हर बार इंजेक्शन लेना,
बोतल से नसों में,
पानी चढ़ते हुए देखना,
वही पानी का,
आंखों से बहते रहना,
हज़ारों तरह की खाने की बंदिशें,
उफ्फ, सोचते ही,
डर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं,
मैं तो नहीं बर्दाश्त कर पाता,
शायद जीवन से हार जाता....
आज सवेरे ही,
पूछा मां से,
इतना दर्द सहा है तुमने,
कुछ लिखो उसके बारे में,
आगे की कहानी है,
उसी की जुबानी,
जब भी दर्द होता है कभी,
चुप सी हो जाती हूं,
और मन में करती प्रार्थना,
बिस्तर पे सो जाती हूं,
जब सहन होता नहीं तब,
चीखने का मन करता है,
और इंजेक्शन के बारे में सोच के,
फिर से बहुत डर लगता है,
अक्सर सोचती हूं,
दर्द का इलाज़ दर्द ही है क्या?
बहुत शर्म आती है बेटा,
जब इतनी कमजोरी हो,
की हर छोटे काम के लिए भी,
सहारा लेना जरूरी हो,
जीवन निरर्थक लगता है,
क्यों नहीं मै मर जाती हूं,
अपने साथ तुम सब पे भी,
बोझ बनी हुई जाती हूं.....
सुन के मां के इन शब्दों को,
जी भर के रोना आया,
कितना गहरा प्रभाव है दर्द का,
मां के जीवन ने समझाया,
ट्रेनिंग के दिन भी याद आए,
जब भी कोई मरीज,
दर्द की शिकायत करता,
थोड़ा तो दर्द बर्दाश्त कीजिए,
नहीं तो ये पेन किलर लीजिए,
इतना ही बस करते थे,
भीड़ का बहाना कर के,
अपने फ़र्ज़ से मुकरते थे,
अब जाके महसूस हो रहा,
उनकी मानसिक यातना का,
दर्द का और दर्द की उपेक्षा का....
आओ चले,
कसम उठाएं,
हर दर्द की गंभीरता को समझें,
सबकी सहने की,
क्षमता अलग है,
हर मरीज की जरूरत अलग है,
दर्द के हर पहलू को समझें,
शरीर और मन दोनों को परखें,
दोनो का इलाज जरूरी है,
नहीं तो बस खानापूर्ति है,
और भी है जरूरी,
दोस्त और परिवार का साथ,
प्राकृतिक वातावरण मिल जाए,
तो और भी बन जाती है बात,
फूल, पौधे, तितली और पंछी,
जब अपना रंग बिखेरते हैं,
दर्द और दर्द का डर दोनो ही,
अपने पांव समेटते हैं,
मैं और मां दोनों ही नितदिन,
पंछियों, पौधों के साथ खेलते हैं,
हरियाली को हथियार बना कर,
साहस से हर दर्द को झेलते हैं।
Image by Gayatri